गीता प्रेस, गोरखपुर >> वास्तविक सुख वास्तविक सुखस्वामी रामसुखदास
|
5 पाठकों को प्रिय 105 पाठक हैं |
प्रस्तुत पुस्तक में श्रीरामसुखदास जी महाराजद्वारा नागपुर में दिये गये कुछ उपयोगी प्रवचनों का संग्रह है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीहरिः।।
निवेदन
प्रस्ततु पुस्तक में श्रद्धेयस्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा
नागपुर में दिये गये कुछ उपयोगी प्रवचनों का संग्रह किया गया है। ये
प्रवचन कल्याण के इच्छुक साधकों के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। पाठकों
से मेरी विनम्र प्रार्थना है कि वे कम-से-कम एक बार इस पुस्तक को
मननपूर्वक अवश्य ही पढ़ें और इससे लाभ उठाने की चेष्टा करें।
विनीत
1. वास्तविक सुख
मनुष्य जब तक उत्पत्ति-विनाशशील सुख में फँसा रहता है, तब तक उसको होश
नहीं होता, ज्ञान नहीं होता। उसको यह विचार ही नहीं होता कि इससे कितने
दिन काम चलायेंगे ! जो उत्पन्न होता है, वह नष्ट होता ही है। जिसका संयोग
होता है, उसका वियोग होता ही है। जो आता है, वह चला जाता है। जो पैदा होता
है वह मर जाता है। अब इनके साथ हम कितने दिन रहेंगे ? अतः मनुष्य के लिए
यह बहुत आवश्यक है कि वह ऐसे आनन्द को प्राप्त कर ले, जिसे प्राप्त करने
पर वह सदा के लिये सुखी हो जाय, उसको कभी किञ्चित मात्र भी कष्ट न हो।
हम देखते हैं कि बचपन से लेकर अभी तक मैं वही हूँ। शरीर बदल गया है, दृश्य बदल गया, परिस्थिति बदल गयी, देश, काल, आदि सब कुछ बदल गया, पर मैं वही हूँ। बदलने वालों के साथ मैं कितने दिन रह सकता हूँ ? इनसे मुझे कब तक सुख मिलेगा ? इस बात पर विचार करने की योग्यता तथा अधिकार केवल मनुष्य-को ही मिला है, और मनुष्य ही इसको समझ सकता है। पशु-पक्षियों में इसको समझने की ताकत ही नहीं है। देवता आदि समझ तो सकते हैं पर उनको भी वह अधिकार नहीं मिला है, जो कि मनुष्य को मिला हुआ है। मनुष्य खूब आगे बढ़ सकता है; क्योंकि मानव-शरीर मिला ही भगवत्प्रप्ति के लिए है।
हम देखते हैं कि बचपन से लेकर अभी तक मैं वही हूँ। शरीर बदल गया है, दृश्य बदल गया, परिस्थिति बदल गयी, देश, काल, आदि सब कुछ बदल गया, पर मैं वही हूँ। बदलने वालों के साथ मैं कितने दिन रह सकता हूँ ? इनसे मुझे कब तक सुख मिलेगा ? इस बात पर विचार करने की योग्यता तथा अधिकार केवल मनुष्य-को ही मिला है, और मनुष्य ही इसको समझ सकता है। पशु-पक्षियों में इसको समझने की ताकत ही नहीं है। देवता आदि समझ तो सकते हैं पर उनको भी वह अधिकार नहीं मिला है, जो कि मनुष्य को मिला हुआ है। मनुष्य खूब आगे बढ़ सकता है; क्योंकि मानव-शरीर मिला ही भगवत्प्रप्ति के लिए है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book